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सत्य, तपस्या और त्याग की कुर्बानी – बकरीद

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महबूब आलम

ईद-उल-अजहा हर साल कुर्बानी की याद दिलाता है। भारत में इसे बकरीद के नाम से भी जाना जाता है। इस्लाम धर्म के अनुयायी इस मुबारक दिन पर अल्लाह की राह में पशुओं की कुर्बानी देते हैं। यह एक खास पर्व है, जो तीन दिनों तक मनाया जाता है और जिसे कुर्बानी का दिन भी कहा जाता है। यह इस्लाम धर्म का दुनिया भर में मनाया जाने वाला दूसरा सबसे महत्वपूर्ण त्योहार है।
ईद-उल-अजहा, जो कि अरबी भाषा का शब्द है, का अर्थ है कुर्बानी की ईद। यह रमजान के पवित्र महीने की समाप्ति के 70 दिन बाद मनाया जाता है। अरब देशों में इसे ईद-उल-अजहा कहा जाता है, जबकि भारत में यह बकरीद के नाम से प्रसिद्ध है।


यह पर्व मूल रूप से हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की उस सुन्नत से जुड़ा है, जिसमें उन्होंने अल्लाह के हुक्म पर अपने पुत्र हज़रत इस्माइल अलैहिस्सलाम की कुर्बानी देने का संकल्प लिया था। यह घटना सत्य, तपस्या, त्याग और बलिदान की अद्वितीय मिसाल है। हज़रत इब्राहीम हर कठिन परीक्षा में खरे उतरे और जब अल्लाह का आदेश आया, तो अपने बेटे को ज़मीन पर लिटाकर कुर्बानी के लिए तैयार हो गए।
तीन रातों तक सपने में आए इस आदेश को उन्होंने ईश्वरीय हुक्म समझा और बिना संकोच उसे स्वीकार किया। इस घटना ने एक सुन्नत का रूप ले लिया, जिसे दुनिया भर के मुसलमान आज भी निभाते हैं। हज़रत इब्राहीम, जो अपने बेटे से अत्यधिक प्रेम करते थे, अल्लाह के हुक्म के आगे पूरी तरह समर्पित हो गए।


पैगंबर हज़रत इब्राहीम की इस सुन्नत को ज़िंदा रखने के लिए आज भी मुसलमान जानवरों की कुर्बानी करते हैं। यह परंपरा इस्लाम के उस मूल भाव को दर्शाती है, जिसमें अल्लाह के प्रति पूर्ण समर्पण, सत्य के लिए तपस्या, त्याग और बलिदान को सर्वोच्च माना गया है। जब तक मुसलमान दुनिया में हैं, यह परंपरा जारी रहेगी।
इस्लाम की कई महत्वपूर्ण परंपराएँ हज़रत इब्राहीम से जुड़ी हुई हैं — हज यात्रा, ज़मज़म का पानी, और काबा शरीफ की पवित्रता — जिसकी नींव भी हज़रत इब्राहीम ने ही रखी थी। आज भी अरब में वह स्थान मौजूद है, जो लगभग पाँच हज़ार वर्षों से हज़रत इब्राहीम की इस सुन्नत का गवाह है। मुसलमान उसी परंपरा पर अमल करते हुए कुर्बानी अदा करते हैं।

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