द फॉलोअप डेस्क
देश के महानायक, स्वतंत्रता संग्राम के अद्वितीय योद्धा, और जल, जंगल, जमीन की लड़ाई को एक नई दिशा देने वाले बिरसा मुंडा को उनकी शहादत दिवस पर शत-शत श्रद्धांजलि।
डोम्बारी बुरु का संग्राम
भारतीय इतिहास में ऐसे बहुत कम योद्धा हुए हैं जिन्होंने बहुत कम उम्र में एक पूरे समुदाय की चेतना को जागृत किया। उनमें से एक थे हमारे धरती आबा बिरसा मुंडा। 19वीं सदी के अंत में जब अंग्रेज हुकूमत आदिवासियों की ज़मीनें छीनकर रही थी, तब बिरसा मुंडा ने न केवल आवाज़ उठाई, बल्कि एक जनआंदोलन को जन्म दिया जिसे उलगुलान कहा गया, अर्थात् "महाविद्रोह"।
झारखंड की घने वनों और पहाड़ियों के बीच स्थित डोम्बारी बुरु की पहाड़ी आज़ादी की एक ऐसी गाथा की साक्षी बनी, जिसने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव तक हिला दी। यही वह स्थान था जहाँ बिरसा मुंडा ने हज़ारों आदिवासियों को इकट्ठा कर अंग्रे शासन और जमींदारी शोषण के खिलाफ क्रांति का बिगुल फूंका। उन्होंने आदिवासियों से कहा "हमारी ज़मीन, हमारा जल-जंगल, हमारी पहचान है। इसे कोई छीन नहीं सकता।"
जब अंग्रेजों को इस आंदोलन की भनक लगी, तो उन्होंने डोम्बारी बुरु को घेर लिया। गोलियों की बौछार हुई, तोपें दागी गईं, लेकिन उन वीरों ने डरना नहीं सीखा था। बिरसा के अनुयायी न निहत्थे थे, न निर्बल। वे स्वाभिमान और आत्मबल से भरे हुए थे। उन्होंने अपने पारंपरिक अस्त्र-शस्त्र से अंग्रे फौज का डटकर मुकाबला किया।
इस संघर्ष में सैकड़ों आदिवासी वीरगति को प्राप्त हुए, परन्तु उन्होंने अंग्रेजों को यह स्पष्ट कर दिया कि धरती के बेटे झुकते नहीं, टूट सकते हैं पर बिकते नहीं। यह संग्राम केवल एक लड़ाई नहीं थी, यह आत्मसम्मान, संस्कृति और अधिकारों के लिए लड़ा गया युद्ध था।
डोम्बारी बुरु आज भी खामोश नहीं है। उसकी चट्टानों पर आज भी वीरता की वो गूंज सुनाई देती है
"जब धरती को बचाना हो, तो बिरसा बनकर उठना पड़ता है!"