जेब अख्तर
21 मई 1943 को बिहार के गया जिले के बैरवां गांव में जन्मे राजेंद्र प्रसाद सिंह ने बचपन से ही संघर्ष और साधना की राह चुनी थी। उन्होंने नवादा से मैट्रिक की परीक्षा पास की और गया में प्री-यूनिवर्सिटी की पढ़ाई पूरी की। फिर जीवन की धारा उन्हें कोयलांचल की धूल और धुएं में ले आई, जहां वे श्रमिकों की आवाज बन गए।
राजेंद्र प्रसाद सिंह का नाम केवल सत्ता और संगठन तक सीमित नहीं था। उन्होंने अपनी राजनीतिक यात्रा की शुरुआत ही उस धरती से की थी जहाँ आम आदमी की आवाज़ अक्सर दब जाती है – कोयलांचल की खदानों से। 1970 के दशक में ढोरी एरिया से कोयला मजदूरों की समस्याओं को जोरशोर से उठाकर उन्होंने अपनी आवाज़ बुलंद की। उस वक्त जब सत्ता और संगठन की ऊंचाइयों तक पहुंचने के लिए लोग दल बदल और समझौते करते थे, राजेंद्र सिंह ने सादगी और ईमानदारी से अपनी राह बनाई।
वे जानते थे कि मजदूर की ताकत केवल संख्या में नहीं, बल्कि उसकी एकजुटता और नेतृत्व में होती है। इंटक के राष्ट्रीय महामंत्री बनने के बाद भी उन्होंने अपनी पहचान एक "मजदूरों के नेता" के रूप में बनाए रखी। सीसीएल ढोरी से लेकर कोल इंडिया की जेबीसीसीआई तक, हर मंच पर उनकी प्राथमिकता मजदूरों की भलाई रही। चाहे वेज बोर्ड की बैठकों में मजदूरों की मज़दूरी बढ़ाने की बात हो या स्पेशल VRS स्कीम की शुरुआत – हर कदम पर उन्होंने मजदूरों के हक में फैसला लिया।
कायदे से राजेंद्र सिंह का राजनीतिक जीवन 70 के दशक में बेरमो कोयलांचल के ढोरी एरिया से शुरू हुआ। सीसीएल में ही श्रमिक के रूप में काम करते हुए उन्होंने मजदूरों की आवाज बुलंद की और राष्ट्रीय कोलियरी मजदूर संघ (RCMS) के सीसीएल ढोरी प्रक्षेत्र के सचिव बने। यहीं से उनकी राजनीति ने रफ्तार पकड़ी। मजदूर संगठन की दुनिया में उनका कद बढ़ता गया और वे इंटक (Indian National Trade Union Congress) के राष्ट्रीय महामंत्री बने।
उनकी सादगी और सिद्धांतप्रियता ने उन्हें जल्दी ही मजदूरों के साथ आम आदमी के बीच भी खास बना दिया। जब इंटक में पूर्व सांसद ददई दुबे, ओपी लाल और फुरकान अंसारी ने उनके खिलाफ मोर्चा खोला, तब भी राजेंद्र सिंह ने आक्रामक राजनीति का जवाब शांत रहकर दिया। धीरे-धीरे विरोधी उनके पाले में आते गए। उन्होंने कभी विरोध और विवादों की राजनीति नहीं की और न ही बाहरी-भीतरी की सियासत में फंसे।
बेरमो से 6 बार विधायक चुने गये
1985 में पहली बार बेरमो से विधायक बने और उसके बाद 1990, 1995, 2000 में लगातार जीत दर्ज की। उन्होंने सीपीआई के प्रसिद्ध श्रमिक नेता शफीक खान को भी मात दी। 1989 में सत्येंद्र नारायण सिंह की सरकार में लोक स्वास्थ्य अभियंत्रण मंत्री बने और 2000 में लालू-राबड़ी सरकार में ऊर्जा मंत्री का कार्यभार संभाला।
2000 में ही 15 नवंबर को बिहार के बंटवारे के बाद अलग झारखंड राज्य बना। 2005 में अर्जुन मुंडा की सरकार में उत्कृष्ट विधायक का सम्मान मिला, लेकिन चुनाव हार गए। फिर 2009 में वापसी की और हेमंत सोरेन सरकार में वित्त, वाणिज्य-कर, ऊर्जा, स्वास्थ्य और संसदीय कार्यमंत्री बने। 2014 में हारने के बाद भी उनका हौसला कम नहीं हुआ और 2019 में फिर जीत हासिल की।
राजेंद्र सिंह दो बार लोकसभा चुनाव भी लड़े—1998 और 1999 में गिरिडीह से—लेकिन भाजपा के रवीन्द्र कुमार पाण्डेय से हार गए। इसके बावजूद संसदीय राजनीति में उनकी कोशिशों की सराहना हुई।
JBCCI-4 से लेकर 6 तक में रहे शामिल
कोल इंडिया की वेज बोर्ड-चार से लेकर नौ तक के सदस्य रहे और कोयला मजदूरों के लिए कई अहम फैसले कराए। स्पेशल फिमेल वीआरएस स्कीम लागू कराना उनकी एक बड़ी उपलब्धि रही। CIL एपेक्स जेसीसी, CIL सेफ्टी बोर्ड, CIL वेलफेयर बोर्ड और जेबीसीसीआई-8 की सब-कमेटी में भी उन्होंने मजदूर हित के लिए काम किया। स्टैंडिंग कमेटी ऑन सेफ्टी इन कोल माइंस और डीजीएमएस अवार्ड कमेटी में भी उनकी सक्रिय भागीदारी रही।
2 राज्यों में बिखरी सियासी चमक
उनकी सियासत की चमक एक नहीं बल्कि दो राज्यों में बिखरी। वे झारखंड विधानसभा में कांग्रेस विधायक दल के नेता और एक बार नेता प्रतिपक्ष भी रहे। उन्हें मृदुभाषी, कुशल नेतृत्वकर्ता और जनप्रिय नेता के रूप में याद किया जाता है। उनके व्यक्तित्व और आचरण की वजह से झारखंड विधानसभा ने उन्हें "श्रेष्ठ विधायक" के सम्मान से नवाजा।
राजेंद्र सिंह ने अपनी सादगी और अपने समाजवादी विचारों से कभी समझौता नहीं किया। सत्ता के शिखर पर पहुंचने के बावजूद वे हमेशा मजदूर और मजदूर संगठनों से जुड़े रहे। उनके व्यक्तित्व में संघर्ष की तपिश भी थी और सेवा की शीतलता भी।
24 मई 2020 को 77 वर्ष की उम्र में उन्होंने दुनिया को अलविदा कहा। गुरुग्राम के फोर्टिस अस्पताल में 22 दिनों के इलाज के बाद उनका निधन हुआ। उनके निधन पर राहुल गांधी ने ट्वीट कर दुख जताया और कहा, "दुःख की इस घड़ी में मेरी संवेदनाएं उनके परिवार और प्रियजनों के साथ हैं।" मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने भी कहा, "झारखंड ने एक कर्मठ नेता और सच्चा सेवक खो दिया है।"
आज उनकी पुण्यतिथि पर उन्हें याद करते हुए यही कहा जा सकता है कि राजेंद्र प्रसाद सिंह ने जो संघर्षों से सीखा, उसे सत्ता और सम्मान के शिखर पर भी नहीं भूला। वे सचमुच मंत्री और मजदूर और आमजन—तीनों के मसीहा थे।
वर्तमान समय में उनके बड़े बेटे कुमार जयमंगल सिंह उर्फ अनूप सिंह बेरमो से ही विधायक हैं और कांग्रेस विधायक दल के उपनेता हैं। वे इसी सीट से दूसरी बार विधायक बने हैं। उनके दूसरे बेटे कुमार गौरव झारखंड राज्य युवा आयोग के अध्यक्ष हैं। हाल ही में बिहार विधानसभा चुनाव को देखते हुए उनको वार रूम का चेयरमैन बनाया गया है।